समान नागरिक संहिता से क्या चाहती है बीजेपी ?

 



1 जुलाई।

1967 के आम चुनाव में भारतीय जनसंघ ने पहली बार 'समान नागरिक संहिता' का उल्लेख किया।घोषणापत्र में कहा गया था कि अगर जनसंघ सत्ता में आता है तो देश में "यूनिफॉर्म सिविल कोड" लागू किया जाएगा।

इसके बाद 1967 से 1980 के बीच भारतीय राजनीति में एक के बाद एक घटनाएं हुईं, जैसे कांग्रेस का बंटवारा, भारत-पाकिस्तान युद्ध 1971, इमरजेंसी, जिससे 'यूनिफॉर्म सिविल कोड' का मुद्दा लगभग पृष्ठभूमि में चला गया।

1980 में बीजेपी की स्थापना के बाद यूसीसी की मांग फिर से बढ़ने लगी।

ये तीन प्रमुख मुद्दे बीजेपी मेनिफेस्टो में हैं: राम मंदिर निर्माण, अनुच्छेद 370 और समान नागरिक संहिता।

लेकिन बीजेपी सरकारों (यहां तक कि नरेंद्र मोदी की पहली सरकार) ने कभी भी समान नागरिक संहिता लागू करने पर विचार नहीं किया।

इसके बावजूद, इसे लेकर कभी-कभी बहस और बहस होती रही है। बीजेपी नेता ने कहा कि यूसीसी का मुद्दा अब भी उनकी प्राथमिकताओं में है, लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अब तक खुलकर कुछ नहीं कहा।

बीते 27 जून को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने यूसीसी पर इतनी व्यापक बातचीत की पहली बार की थी।

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प्रधानमंत्री मोदी ने क्या कहा?

प्रधानमंत्री मोदी ने भोपाल में एक कार्यक्रम में कहा कि 'एक ही परिवार में दो लोगों के लिए अलग-अलग नियम नहीं हो सकते। ऐसी विचित्र व्यवस्था से घर कैसे चलेगा?'

प्रधानमंत्री मोदी ने कहा, “सुप्रीम कोर्ट ने बार-बार कहा है। सुप्रीम कोर्ट चुप है। यह कहता है कि कॉमन सिविल कोड दें। लेकिन ये भूखे वोट बैंक के लोग इसमें बाधा डाल रहे हैं। लेकिन भाजपा हर किसी के साथ, हर किसी के विकास की भावना से काम कर रही है।"

प्रधानमंत्री ने नागरिक संहिता पर दिए गए बयान के बाद अधिकांश विपक्षी पार्टियां कहती हैं कि प्रधानमंत्री मोदी ने 2024 के चुनाव से पहले यूसीसी का शिगूफ़ा छेड़ा है और जनता को गुमराह करना चाहते हैं।
समर्थक और विरोधी पक्ष

समान नागरिक संहिता का विरोध कर रहे हैं अधिकांश विरोधी पक्ष। इन पार्टियों का मानना है कि यूसीसी अल्पसंख्यक समुदायों की धार्मिक स्वतंत्रता का उल्लंघन करेगा और क्योंकि व्यक्तिगत कानूनों की वर्तमान व्यवस्था अच्छी तरह से काम कर रही है, यूसीसी आवश्यक नहीं है।

विपक्षी पार्टियों का दावा है कि यूसीसी हिंदू बहुसंख्यकवाद को सत्तारूढ़ बीजेपी सरकार पर थोपने के लिए इस्तेमाल किया जाएगा।

इसका खुलकर विरोध कांग्रेस, तृणमूल कांग्रेस, जेडीयू, सीपीआई, आरजेडी, समाजवादी पार्टी और सीपीआई(एम) ने किया है।

साथ ही, आम आदमी पार्टी ने इसका सैद्धांतिक समर्थन किया है। पार्टी के सांसद और नेता संदीप पाठक ने कहा, "हमारी पार्टी सैद्धांतिक रूप से इसका समर्थन करती है। इसका समर्थन आर्टिकल 44 भी करता है। यह सभी धार्मिक मुद्दे हैं, इसलिए सर्वसम्मति से ही लागू होना चाहिए।''

शिवसेना (उद्धव ठाकरे गुट) भी इसी तरह की नीति अपनाती है।

एनसीपी ने इसका न तो समर्थन किया है, न विरोध किया है। पार्टी के कार्यकारी अध्यक्ष प्रफुल्ल पटेल ने कहा, "हम सिर्फ ये कह रहे हैं कि इतना बड़ा फैसला जल्दबाज़ी में नहीं लिया जाना चाहिए। सरकार ने अचानक साढ़े नौ वर्ष बाद यूसीसी से बातचीत शुरू की है। अगले चुनावों को ध्यान में रखते हुए यह एक राजनीतिक चाल है।''
प्रधानमंत्री ने यूसीसी से क्यों बात की?

इसका सीधा उत्तर यह हो सकता है कि बीजेपी ने अपने घोषणापत्र में "समान नागरिक संहिता" को लागू करने का वादा किया है, लेकिन अभी क्यों?

'यूसीसी इज मोदीज न्यूक्लियर बटन' नामक एक वरिष्ठ पत्रकार ने 'दी प्रिंट' के लिए एक लेख लिखा है, जिसमें वह कहते हैं, "कि आख़िर 9 सालों से सत्ता पर काबिज़ रहने के बाद प्रधानमंत्री मोदी अब इस मुद्दे को क्यों उठा रहे हैं, जबकि बीते नौ सालों में वह आसानी से एक गंभीर बहस को बढ़ावा दे सकते थे और मुसलमानों को आश्व"

जवाब है कि बीजेपी 2024 के लोकसभा चुनाव के लिए तैयार है। मैंने कुछ हफ्ते पहले ही बताया था कि यूसीसी बीजेपी ने मोदी को हिंदुत्व को अपनी चुनावी रणनीति में महत्वपूर्ण स्थान देगा।''

इसके पीछे वरिष्ठ पत्रकार प्रदीप सिंह दो प्रमुख कारण बताते हैं। पहले, यूसीसी जनसंघ से बीजेपी के तीन प्रमुख लक्ष्यों में शामिल है।

अनुच्छेद 370 और राम मंदिर दोनों लागू हो चुके हैं, इसलिए एकमात्र एजेंडा बचा हुआ था। यही कारण है कि बीजेपी के मूल मतदाताओं को यूसीसी की शुरुआत कब होगी? बीजेपी को इसलिए कोई नया मुद्दा नहीं है।

उसने दूसरी वजह बताते हुए कहा, "विपक्षी पार्टियों की बीते 23 जून को बैठक हुई है। उस बैठक में यह तय हुआ कि सभी पार्टियां मिलकर चुनाव लड़ेंगी, लेकिन किस मुद्दे पर लड़ेंगी। प्रधानमंत्री ने यूसीसी पर बोलकर विरोधी पक्ष से पहले एक कार्यक्रम बनाया। कांग्रेस ने अब कहा है कि अगली बैठक, 13 से 14 जुलाई में, इस पर प्रतिक्रिया देगी। यानी पक्ष ने प्रो-एक्टिव होने की बजाय रिएक्टिव होना शुरू कर दिया।''

विपक्षी पार्टियां 1977 और 1989 के आम चुनावों में एकजुट हुईं, कहते हैं प्रदीप सिंह। इमरजेंसी और भ्रष्टाचार के आरोप इसकी मुख्य वजह थीं। 1977 में भ्रष्टाचार और 1989 में बोफोर्स

विपक्ष को ऐसा कोई महत्वपूर्ण मुद्दा नहीं मिला है जो जनता को आकर्षित करे। प्रधानमंत्री ने इसके विपरीत अब यूसीसी का मुद्दा उठाकर विपक्ष को भड़काया है। कांग्रेस, शिवसेना और आम आदमी पार्टी में मतभेद हैं। यानी, जो विपक्षी एकता की चर्चा हो रही थी, वह इस मुद्दे पर विभाजित हो गई है।




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