2018 में इलेक्टोरल बॉण्ड लाते समय मोदी सरकार का कहना था कि इससे सियासी दलों के पैसे जुटाने के संदेहास्पद तौर-तरीक़ों में सुधार लाया जा सकेगा
भारत के मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ के नेतृत्व वाली सुप्रीम कोर्ट की पांच न्यायधीशों की एक संविधान पीठ इलेक्टोरल बॉन्ड या चुनावी बॉन्ड योजना की क़ानूनी वैधता से जुड़े मामले की सुनवाई कर रही है.
ये मामला सुप्रीम कोर्ट में आठ साल से ज़्यादा वक़्त से लंबित है और इस पर सभी निगाहें इसलिए भी टिकी हैं क्योंकि इस मामले का नतीजा साल 2024 में होने वाले लोकसभा चुनावों पर बड़ा असर डाल सकता है.
इस मामले पर सुनवाई शुरू होने से एक दिन पहले 30 अक्टूबर को भारत के अटॉर्नी जनरल आर. वेंकटरमणी ने इस योजना का समर्थन करते हुए सुप्रीम कोर्ट से कहा कि ये योजना राजनीतिक दलों को दिए जाने वाले चंदों में "साफ़ धन" के इस्तेमाल को बढ़ावा देती है.
साथ ही अटॉर्नी जनरल ने शीर्ष अदालत के सामने तर्क दिया कि नागरिकों को उचित प्रतिबंधों के अधीन हुए बिना कुछ भी और सब कुछ जानने का सामान्य अधिकार नहीं हो सकता है;
इस बात का सन्दर्भ उस तर्क से जुड़ा हुआ है, जिसके तहत ये मांग की जा रही है कि राजनीतिक पार्टियों को ये जानकारी सार्वजानिक करनी चाहिए कि उन्हें कितना धन चंदे के रूप में किस से मिला है.
क्या हैं इलेक्टोरल बॉन्ड्स, जिन्हें लेकर इतनी बहस चल रही है, आइए समझते हैं.
गुमनाम वचन पत्र
इलेक्टोरल बॉन्ड राजनीतिक दलों को चंदा देने का एक वित्तीय ज़रिया है. यह एक वचन पत्र की तरह है जिसे भारत का कोई भी नागरिक या कंपनी भारतीय स्टेट बैंक की चुनिंदा शाखाओं से ख़रीद सकता है और अपनी पसंद के किसी भी राजनीतिक दल को गुमनाम तरीक़े से दान कर सकता है.भारत सरकार ने इलेक्टोरल बॉन्ड योजना की घोषणा 2017 में की थी. इस योजना को सरकार ने 29 जनवरी 2018 को क़ानूनन लागू कर दिया था.
इस योजना के तहत भारतीय स्टेट बैंक राजनीतिक दलों को धन देने के लिए बॉन्ड जारी कर सकता है.
इन्हें ऐसा कोई भी दाता ख़रीद सकता है, जिसके पास एक ऐसा बैंक खाता है, जिसकी केवाईसी की जानकारियां उपलब्ध हैं. इलेक्टोरल बॉन्ड में भुगतानकर्ता का नाम नहीं होता है.
योजना के तहत भारतीय स्टेट बैंक की निर्दिष्ट शाखाओं से 1,000 रुपये, 10,000 रुपये, एक लाख रुपये, दस लाख रुपये और एक करोड़ रुपये में से किसी भी मूल्य के इलेक्टोरल बॉन्ड ख़रीदे जा सकते हैं.
चुनावी बॉन्ड्स की अवधि केवल 15 दिनों की होती है, जिसके दौरान इसका इस्तेमाल सिर्फ़ जन प्रतिनिधित्व अधिनियम के तहत पंजीकृत राजनीतिक दलों को दान देने के लिए किया जा सकता है.
केवल उन्हीं राजनीतिक दलों को इलेक्टोरल बॉन्ड के ज़रिये चंदा दिया जा सकता है, जिन्होंने लोकसभा या विधान सभा के लिए पिछले आम चुनाव में डाले गए वोटों का कम से कम एक प्रतिशत वोट हासिल किया हो.
योजना के तहत चुनावी बॉन्ड जनवरी, अप्रैल, जुलाई और अक्टूबर के महीनों में 10 दिनों की अवधि के लिए ख़रीद के लिए उपलब्ध कराए जाते हैं.
इन्हें लोकसभा चुनाव के वर्ष में केंद्र सरकार द्वारा अधिसूचित 30 दिनों की अतिरिक्त अवधि के दौरान भी जारी किया जा सकता है.
क्या हैं चिंताएं?
भारत सरकार ने इस योजना की शुरुआत करते हुए कहा था कि इलेक्टोरल बॉन्ड देश में राजनीतिक फ़ंडिंग की व्यवस्था को साफ़ कर देगा.
लेकिन पिछले कुछ सालों में ये सवाल बार-बार उठा कि इलेक्टोरल बॉन्ड के ज़रिए चंदा देने वाले की पहचान गुप्त रखी गई है, इसलिए इससे काले धन की आमद को बढ़ावा मिल सकता है.
एक आलोचना यह भी है कि यह योजना बड़े कॉर्पोरेट घरानों को उनकी पहचान बताए बिना पैसे दान करने में मदद करने के लिए बनाई गई थी.
इस योजना को चुनौती देते हुए सुप्रीम कोर्ट में दो याचिकाएं दायर की गई हैं. पहली याचिका साल 2017 में एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स और ग़ैर-लाभकारी संगठन कॉमन कॉज़ द्वारा संयुक्त रूप से दायर की गई थी और दूसरी याचिका साल 2018 में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) ने दायर की थी.
सुप्रीम कोर्ट में दायर याचिकाओं में कहा गया है कि इस योजना की वजह से भारतीय और विदेशी कंपनियों द्वारा असीमित राजनीतिक दान और राजनीतिक दलों के गुमनाम फ़ंडिंग के फ्लडगेट्स या "बाढ़ के द्वार" खुल जाते हैं, जिससे बड़े पैमाने पर चुनावी भ्रष्टाचार को वैध बना दिया जाता है.
याचिकाओं में ये भी कहा गया है कि इलेक्टोरल बॉन्ड योजना की गुमनामी एक नागरिक के 'जानने के अधिकार' का उल्लंघन करती है, उस अधिकार का जिसे सुप्रीम कोर्ट के पिछले फैसलों ने संविधान के अनुच्छेद 19(1)(ए) के तहत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का एक पहलू माना है.
सुप्रीम कोर्ट के सामने उठाई गई एक चिंता यह है कि एफ़सीआरए में संशोधन किया गया है ताकि भारत में सहायक कंपनियों के साथ विदेशी कंपनियों को भारतीय राजनीतिक दलों को फ़ंड देने की अनुमति दी जा सके.
इस वजह से अपने एजेंडा रखने वाले अंतरराष्ट्रीय लॉबिस्टों को भारतीय राजनीति और लोकतंत्र में दख़ल देने का मौक़ा मिलता है.
याचिकर्ताओं ने कंपनी अधिनियम, 2013 में किए गए उन संशोधनों पर भी आपत्तियां उठाई हैं जो कंपनियों को अपने वार्षिक लाभ और हानि खातों में राजनीतिक योगदान का विवरण देने से छूट देते हैं. याचिकाकर्ताओं का कहना है कि इससे राजनीतिक फ़ंडिंग में अपारदर्शिता बढ़ेगी और राजनीतिक दलों द्वारा ऐसी कंपनियों को अनुचित लाभ पहुंचाने को बढ़ावा मिलेगा.
इलेक्टोरल बॉन्ड योजना को बजट में डाल दिया गया था और चूंकि बजट एक मनी बिल होता है तो राज्यसभा उसमें कोई फेरबदल नहीं कर सकती.
ये बात भी बार-बार उठाई गई है कि चूंकि राज्यसभा में सरकार के पास बहुमत नहीं था तो इस विषय को मनी बिल में डाल दिया ताकि उसे आसानी से पारित करवाया जा सके.
तो क्या इलेक्टोरल बॉन्ड को मनी बिल के तहत पारित किया जा सकता था?
इस क़ानूनी सवाल पर सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ फ़िलहाल विचार नहीं करेगी क्योंकि कब किसी विधेयक को धन विधेयक नामित किया जा सकता है, इस बात पर सात न्यायधीशों की संविधान पीठ पहले से ही विचार कर रही है.
किसे कितना फ़ायदा?
चुनाव निगरानी संस्था एसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) की एक रिपोर्ट के मुताबिक़ 2016-17 और 2021-22 के बीच पांच वर्षों में कुल सात राष्ट्रीय दलों और 24 क्षेत्रीय दलों को चुनावी बॉण्ड से कुल 9,188 करोड़ रुपये मिले.
इस 9,188 करोड़ रुपये में से अकेले भारतीय जनता पार्टी की हिस्सेदारी लगभग 5272 करोड़ रुपये थी. यानी कुल इलेक्टोरल बॉन्ड के ज़रिए दिए गए चंदे का क़रीब 58 फ़ीसदी बीजेपी को मिला.
इसी अवधि में कांग्रेस को इलेक्टोरल बॉन्ड से क़रीब 952 करोड़ रुपये मिले, जबकि तृणमूल कांग्रेस को 767 करोड़ रुपये मिले.
एडीआर की रिपोर्ट के मुताबिक़ वित्त वर्ष 2017-18 और वित्त वर्ष 2021-22 के बीच राष्ट्रीय पार्टियों को इलेक्टोरल बॉन्ड के ज़रिये मिलने वाले चंदे में 743 फ़ीसदी की बढ़ोतरी हुई. वहीं दूसरी तरफ इसी अवधि में राष्ट्रिय पार्टियों को मिलने वाला कॉर्पोरेट चंदा केवल 48 फ़ीसदी बढ़ा.
एडीआर ने अपने विश्लेषण में पाया कि इन पांच सालों में से वर्ष 2019-20 (जो लोकसभा चुनाव का वर्ष था) में सबसे ज़्यादा 3,439 करोड़ रुपये का चंदा इलेक्टोरल बॉन्ड के ज़रिये आया. इसी तरह वर्ष 2021-22 में (जिसमें 11 विधानसभा चुनाव हुए) राजनीतिक पार्टियों को इलेक्टोरल बॉन्ड के ज़रिये क़रीब 2,664 करोड़ रुपये का चंदा मिला.
चुनाव आयोग और आरबीआई की राय
साल 2019 में सुप्रीम कोर्ट के सामने दायर एक हलफ़नामे में चुनाव आयोग ने कहा था कि इलेक्टोरल बॉन्ड राजनीतिक फ़ंडिंग में पारदर्शिता को ख़त्म कर देंगे और इनका इस्तेमाल भारतीय राजनीति को प्रभावित करने के लिए विदेशी कॉर्पोरेट शक्तियों को आमंत्रण देने जैसा होगा.
चुनाव आयोग ने ये भी कहा था कि कई प्रमुख क़ानूनों में किए गए संशोधनों की वजह से ऐसी शेल कंपनियों के खुल जाने की संभावना बढ़ जाएगी, जिन्हें सिर्फ़ राजनीतिक पार्टियों को चंदा देने के इकलौते मक़सद से बनाया जाएगा.
एडीआर की याचिका के मुताबिक़, भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) ने बार-बार चेतावनी दी थी कि इलेक्टोरल बॉण्ड का इस्तेमाल काले धन के प्रसार, मनी लॉन्ड्रिंग, और सीमा-पार जालसाज़ी को बढ़ाने के लिए हो सकता है.
इलेक्टोरल बॉन्ड को एक 'अपारदर्शी वित्तीय उपकरण' कहते हुए आरबीआई ने कहा था कि चूंकि ये बॉन्ड मुद्रा की तरह कई बार हाथ बदलते हैं, इसलिए उनकी गुमनामी का फ़ायदा मनी-लॉन्ड्रिंग के लिए किया जा सकता है.
क्या कहती है सरकार
सरकार का कहना है कि इलेक्टोरल बॉन्ड राजनीतिक पार्टियों को मिलने वाले चंदे में पारदर्शिता को बढ़ावा देते हैं.
सरकार के मुताबिक़, ये योजना पारदर्शी है और इसके ज़रिये काले धन की अदला-बदली नहीं होती.
केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को कई मौक़ों पर बताया है कि धन प्राप्त करने का तरीक़ा बिल्कुल पारदर्शी है और इसके ज़रिये किसी भी काले या बेहिसाब धन को हासिल करना संभव नहीं है.
यह कहते हुए कि यह योजना 'स्वच्छ धन के योगदान' और 'टैक्स दायित्वों के पालन' को बढ़ावा देती है, अटॉर्नी जनरल आर वेंकटरमणी ने कहा है कि इस मसले को सार्वजनिक और संसदीय बहस के दायरे में छोड़ दिया जाना चाहिए.
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