इसराइल पर मोदी सरकार की नीति से क्या अरब के देशों का ग़ुस्सा बढ़ सकता है?

यूक्रेन पर रूस ने फ़रवरी 2022 में जब हमला किया तो मोदी सरकार की विदेशी नीति की चौतरफ़ा सराहना हुई कि भारत ने अपने हितों का ख्याल रखा और पश्चिम के दबाव में झुकने से इनकार कर दिया.

यहाँ तक कि भारत की विपक्षी पार्टियों ने भी मोदी सरकार की विदेश नीति की तारीफ़ की और कहा कि यह भारत के हक़ में है. राहुल गांधी ने ख़ुद भी कहा था कि वह इस मामले में सरकार के साथ हैं.
यूक्रेन-रूस युद्ध में भारत ने ख़ुद को ग्लोबल साउथ की आवाज़ के तौर पर पेश करने की ठोस कोशिश की और उसे नई दिल्ली में आयोजित जी-20 समिट में सहमति से प्रस्ताव पारित कराने में भी सफलता मिली थी.
लेकिन अब जब हमास और इसराइल की जंग चल रही है और हज़ारों आम लोग मारे जा रहे हैं, ऐसे में भारत की विदेश नीति पर कई तरह के सवाल उठ रहे हैं.
कई विशेषज्ञों का यह मानना है कि भारत ने जो रुख़ यूक्रेन-रूस जंग में अपनाया था, उसके ठीक उलट इसराइल और हमास की जंग में अपना रहा है.कहा जा रहा है कि यूक्रेन-रूस जंग में भारत पश्चिम के ख़िलाफ़ डटकर खड़ा था लेकिन इसराइल के मामले में वह खुलकर पश्चिम के साथ आ गया है. कई लोग इसे भारत के दोहरे मानदंड के रूप में देख रहे हैं.
हालांकि भारत के विदेश मंत्री एस जयशंकर ने इन सवालों को ख़ारिज कर दिया है और कहा है कि आतंकवाद पर भारत किसी भी रूप में नरमी नहीं दिखा सकता है. भारत का कहना है कि इसराइल में सात अक्टूबर को आतंकवादी हमला हुआ था और इसके ख़िलाफ़ वह सख़्ती से खड़ा होगा.

यूएन में भारत के रुख़ पर सवाल
पिछले हफ़्ते संयुक्त राष्ट्र महासभा में ग़ज़ा में जारी इसराइली युद्ध को रोकने और मानवीय मदद पहुँचाने के लिए युद्धविराम का प्रस्ताव लाया गया था.
यूएन महासभा में इस प्रस्ताव पर हुई वोटिंग से भारत बाहर रहा. भारत यूक्रेन-रूस जंग पर भी संयुक्त राष्ट्र में लाए गए प्रस्तावों पर वोटिंग से बाहर रहता था.
अमेरिका समेत पश्चिम के देश दबाव डालते रहे कि भारत यूएन में रूस के ख़िलाफ़ आने वाले प्रस्ताव पर वोटिंग करे लेकिन भारत किसी भी दबाव में नहीं झुका.
यहाँ तक कि पाकिस्तान में भी भारत की स्वतंत्र विदेशी नीति की तारीफ़ हुई. पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री इमरान ख़ान ने भारत की स्वतंत्र विदेश नीति की खुलकर प्रशंसा की थी.
लेकिन इस बार इसराइल और फ़लस्तीनियों के संकट में भारत के रुख़ को संतुलनवाद के रूप में भी नहीं देखा जा रहा है. रूस और यूक्रेन की जंग में भारत की तटस्थता के पक्ष में तमाम ठोस तर्क थे.
रूस पर भारत की रक्षा निर्भरता, सोवियत के ज़माने से ही कश्मीर पर भारत के साथ रूस का खड़ा रहना या फिर अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में महंगे होते कच्चे तेल के बावजूद भारत को रूस से सस्ता तेल मिलना. इन सबके बीच रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के सामने पीएम मोदी का यह कह देना कि यह युद्ध का ज़माना नहीं है. भारत के इसी रुख़ की वजह से उसकी अध्यक्षता में हुए जी-20 समिट में सहमति से प्रस्ताव पास कराने में भी कामयाबी मिली थी.
लेकिन इसराइल की ग़ज़ा में जारी जंग में हज़ारों की संख्या में आम लोग मारे जा रहे हैं. हमास ने सात अक्टूबर को इसराइल में किए हमले में जितने आम लोगों को मारा था, उसकी तुलना में इसराइली सैन्य कार्रवाई में कई गुना ज़्यादा आम फ़लस्तीनी मारे जा चुके हैं और यह अब भी जारी है.
ऐसे समय में यूएन जनरल असेंबली में मानवीय मदद पहुँचाने के लिए युद्धविराम का प्रस्ताव लाया गया तो भारत वोटिंग से बाहर रहा. कहा जा रहा है कि भारत के पास वोटिंग से बाहर रहने का कोई वाजिब तर्क नहीं था. भारत का तर्क था कि यूएन के प्रस्ताव में हमास के हमले ज़िक्र नहीं था. भारत चाहता था कि प्रस्ताव में हमास के हमले का संदर्भ हो और इसकी निंदा हो.
अरब के देश कितने ईमानदार?
संयुक्त राष्ट्र में भारत के स्थायी प्रतिनिधि रहे टीएस तिरूमूर्ति ने इसराइल-हमास की जंग पर भारत के रुख़ को लेकर अंग्रेज़ी अख़बार द हिन्दू में लिखा है, ''भारत ने हमेशा से इसराइल-फ़लस्तीन संकट का समाधान द्वि-राष्ट्र के सिद्धांत में देखा है. इसराइल के भीतर आतंकवादी हमले से भारत का चिंतित होना भी लाजिमी है.''
''जब अरब वर्ल्ड इसराइल के साथ संबंध सामान्य कर रहा था तो भारत ने भी इस लाइन की उपेक्षा नहीं की. I2U2 ग्रुप (इंडिया, इसराइल, यूएई और यूएस) इसी लाइन की पुष्टि करता है. भारत के लिए यह अहम है कि न उसे केवल आतंकवाद के ख़िलाफ़ होना चाहिए बल्कि ग़ज़ा में मानवीय त्रासदी के ख़िलाफ़ भी डटकर खड़ा होना चाहिए.''
टीएस तिरूमूर्ति ने लिखा है, ''इसराइल-फ़लस्तीन संकट में पश्चिम को उनके पाखंड और दोहरे मानदंड के लिया घेरा जा सकता है लेकिन क्या अरब इस मामले में दूध का धुला है? क्या फ़लस्तीनियों को किनारे करने के लिए अरब के देश ज़िम्मेदार नहीं हैं? इसराइल से रिश्ते सामान्य करने की रेस में अरब के देश फ़लस्तीनियों के मुद्दे पर बात करते हुए कहते हैं कि इसराइल अब फ़लस्तीन के किसी और इलाक़े को अपने में नहीं मिलाने पर सहमत हो गया है. हालांकि इसराइल ठीक इसके उलट करता रहा है.''
''इसराइल के प्रधानमंत्री की कोशिश रहती है कि पश्चिम एशिया में मुद्दा ईरान को बनाया जाए न कि फ़लस्तीन को. अभी इसराइल को लेकर अरब देशों की जो प्रतिक्रिया है, वह सड़कों पर फ़लस्तीनियों के समर्थन में विरोध-प्रदर्शन को रोकने के लिए है. क्या खाड़ी के देश ग़ज़ा पर इसराइली हमले को रोकने के लिए अपने तेल को हथियार नहीं बना सकते थे? फ़लस्तीनियों के हक़ों की उपेक्षा कर इसराइल से रिश्ते सामान्य करने से उन्हें सुरक्षा नहीं मिलेगी, वो भी तब जब खाड़ी के देशों में उदार सरकार बनाने की बात हो रही है.''
अंतरराष्ट्रीय मामलों की विशेषज्ञ निरूपमा सुब्रमण्यम ने लिखा है कि 'संयुक्त राष्ट्र में भारत की डेप्युटी परमानेंट प्रतिनिधि ने वोटिंग से बाहर रहने के पक्ष में जो दलील दी, उससे यह ज़्यादा लग रहा था कि भारत को इस प्रस्ताव के पक्ष में क्यों वोटिंग करनी चाहिए थी. '
योजना पटेल ने यूएन में भारत का जो बयान पढ़ा था, उसमें कहा गया था, ''ग़ज़ा में बच्चों, महिलाओं और आम नागरिकों का मारा जाना चिंताजनक है और इस मानवीय संकट का समाधान होना चाहिए. ग़ज़ा में फँसे आम लोगों तक मानवीय मदद पहुँचाने का भारत स्वागत करता है. भारत ने भी मानवीय मदद भेजी है. ग़ज़ा में जारी युद्ध से मानवीय संकट बढ़ेगा. भारत इसराइल-फ़लस्तीन संकट का समाधान द्वि-राष्ट्र में देखता है.''
संयुक्त राष्ट्र महासभा में आए इस प्रस्ताव पर वोटिंग से बाहर कुल 45 देश रहे थे. 120 देशों ने इस प्रस्ताव के समर्थन में मतदान किया था और 14 देशों ने ख़िलाफ़ में. वोटिंग से बाहर रहने वाले देशों में ज़्यादातर पश्चिम के देश थे. एशिया में भारत और जापान वोटिंग से बाहर रहने वाले अहम देश थे. चीन और रूस ने इस प्रस्ताव के समर्थन में मतदान किया था.
जो 45 देश वोटिंग से बाहर रहे, उनका कहना था कि प्रस्ताव में सात अक्टूबर को इसराइल के भीतर हमास के 'आतंकवादी हमले' का ज़िक्र नहीं था. कनाडा ने इस प्रस्ताव में हमास के हमले का संदर्भ शामिल करने के लिए एक संशोधन लाया था और भारत ने इसका समर्थन किया था लेकिन यह संशोधन पास नहीं हो पाया था.
भारत ने अपने बयान में आतंकवाद की आलोचना करते हुए कहा था कि आतंकवाद की कोई सीमा, राष्ट्रीयता और नस्ल नहीं होती है. भारत ने आतंकवाद के ख़िलाफ़ एकजुट होने की अपील की लेकिन हमास का नाम नहीं लिया था.
दिल्ली स्थित जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी में पश्चिम एशिया स्टडी सेंटर में प्रोफ़ेसर रहे ए.के. पाशा कहते हैं कि भारत ने इसराइल-हमास युद्ध में जो रुख़ दिखाया है, वह मोदी सरकार के दोहरे मानदंड को दिखाता है.
प्रोफ़ेसर पाशा कहते हैं, ''भारत ने यूक्रेन और रूस जंग में स्वतंत्र विदेश नीति के साथ ग्लोबल साउथ की आवाज़ बनने की जो ठोस कोशिश की थी, उन पर ख़ुद ही पानी फेर दिया है. ग़ज़ा में आम फ़लस्तीनी, बच्चे और महिलाएं हर दिन मारे जा रहे हैं. इससे रोकने के लिए संयुक्त राष्ट्र में प्रस्ताव आया तो भारत वोटिंग से बाहर रहा. भारत किस मुँह से कहेगा कि वह ग्लोबल साउथ की आवाज़ है. इसराइल-हमास संघर्ष में मोदी सरकार का रुख़ भारत की स्वतंत्र विदेश नीति के उलट अमेरिका के पिछलग्गू की तरह है.''
भारत के हितों पर असर
प्रोफ़ेसर पाशा कहते हैं, ''प्रधानमंत्री ने सात अक्टूबर के हमास के हमले के बाद कहा कि भारत इसराइल के साथ खड़ा है. उन्होंने इसे आतंकवादी हमला कहा लेकिन हमास का ज़िक्र नहीं किया. फ़लस्तीनियों के हक़ की बात नहीं की. पाँच दिन बाद भारत के विदेश मंत्रालय का बयान आया तो उसमें द्वि-राष्ट्र समाधान की बात कही गई है. भारत ने ग़ज़ा में मानवीय राहत सामग्री भेजी तो दुनिया भर में ढोल पीट दिया और जब ग़ज़ा में मानवीय मदद पहुँचाने के लिए यूएन में युद्धविराम का प्रस्ताव आया तो ख़ुद को वोटिंग से बाहर रखा.''
मोदी सरकार के इस रुख़ के पीछे की रणनीति क्या है? प्रोफ़ेसर पाशा कहते हैं, ''इन्हें चुनाव जीतना है. बीजेपी को पता है कि भारत के भीतर लोकप्रिय जनभावना इसराइल के पक्ष में है. ज़ाहिर है कि यह जनभावना धार्मिक आधार पर बँटी हुई है. लेकिन मुझे लगता है कि मोदी सरकार ने देश में चुनाव जीतने के लिए भारत के हितों और स्वतंत्र विदेश नीति को दांव पर लगा दिया है."
प्रोफ़ेसर पाशा कहते हैं, "इससे मोदी सरकार के रुख़ से ग्लोबल साउथ की आवाज़ बनने की कोशिश को धक्का लगा है और खाड़ी के इस्लामिक देशों में भी भारत के हित लंबी अवधि में बुरी तरह से प्रभावित होंगे. नेतन्याहू जिस तरीक़े से गज़ा में सैन्य कार्रवाई कर रहे हैं, वो लंबे समय तक जाएगी. अरब के देश लंबे समय तक तमाशबीन नहीं रहेंगे. संभव है कि वे ऊर्जा आपूर्ति रोकने पर कोई फ़ैसला करें और ऐसा होता है तो भारत बुरी तरह से प्रभावित होगा.''
प्रोफ़ेसर पाशा कहते हैं कि क़तर में आठ भारतीयों को सज़ा-ए-मौत का संबंध भी इसराइल पर भारत के रुख़ से है और आने वाले वक़्त में खाड़ी के देशों में काम कर रहे 90 लाख भारतीयों के भविष्य पर भी पड़ेगा.
भारत ने तर्क दिया था कि रूसी तेल से आम भारतीयों को फ़ायदा हो रहा है इसलिए आयात बंद नहीं होगा. लेकिन इसराइल के साथ खड़ा होकर भारत अरब को साथ नहीं रखा पाएगा और अरब से तनाव बढ़ेगा तो आम भारतीयों को भारी नुक़सान होगा.''
निरूपमा सुब्रमण्यम ने लिखा है कि संयुक्त राष्ट्र महासभा में इसराइल-हमास जंग पर प्रस्ताव कोई मायने नहीं रखता था क्योंकि यह बाध्यकारी नहीं था.
सुब्रमण्यम ने लिखा है, ''संयुक्त राष्ट्र में इसराइल से जुड़ा प्रस्ताव इस मामले में महत्वपूर्ण था कि कौन किस तरफ़ है. एक संकरी ज़मीन के टुकड़े पर रह रही लाखों की संख्या में बेबस आबादी पर इसराइल की आक्रामकता में भारत किस तरफ़ है, इसका पता चल गया.''
''फ़्रांस ने ग़ज़ा में युद्धविराम वाले प्रस्ताव के समर्थन में वोट किया. ऐसा तब है, जब यूरोप में सबसे ज़्यादा यहूदी आबादी फ़्रांस में रहती है. इसराइल और अमेरिका के बाद सबसे ज़्यादा यहूदी फ़्रांस में ही हैं. फ़्रांस में यूरोप की सबसे बड़ी मुस्लिम आबादी भी रहती है. फ़्रांस और इसराइल में क़रीबी का संबंध है और फ्रांस के पीएम इमैनुएल मैक्रों इसराइली पीएम नेतन्याहू को अपना दोस्त मानते हैं. लेकिन फ़्रांस ने बाक़ी के पश्चिमी देशों के तुलना में वोटिंग से बाहर रहने के बजाय प्रस्ताव के पक्ष में वोट किया.''
बढ़ गई हैं भारत की चुनौतियां?
जेएनयू में पश्चिम एशिया मामलों के विशेषज्ञ प्रोफ़ेसर अश्विनी महापात्रा कहते हैं कि मध्य-पूर्व में अभी जो कुछ भी चल रहा है, उससे भारत की चुनौतियां बढ़ गई हैं.
प्रोफ़ेसर महापात्रा कहते हैं, ''क़तर में जिन आठ भारतीयों को मौत की सज़ा दी गई है, उसका संबंध इसराइल पर भारत के रुख़ से भी है. भारत के रुख़ से खाड़ी के इस्लामिक देशों से असहजता बढ़ेगी और भारत के लिए यह किसी चुनौती से कम नहीं है.''
प्रोफ़ेसर महापात्रा कहते हैं, ''मुझे लगता है कि भारत का रुख़ इसराइल-हमास युद्ध में ग़लत नहीं है. भारत यूएन में प्रस्ताव के ख़िलाफ़ नहीं था. भारत का तर्क ये था कि प्रस्ताव में हमास के आतंकवादी हमले की भी आलोचना हो. भारत की मांग बिल्कुल जायज़ थी. भारत ग्लोबल साउथ की बात आतंकवाद की उपेक्षा करके नहीं कर सकता है.''
थिंक टैंक द विल्सन सेंटर में साउथ एशिया इंस्टिट्यूट के डायरेक्टर माइकल कगलमैन को लगता है कि भारत ग़ज़ा में इसराइली सैन्य ऑपरेशन को आतंकवाद के ख़िलाफ़ लड़ाई के रूप में देख रहा है.
कगलमैन ने लिखा है, ''संयुक्त राष्ट्र में युद्धविराम के प्रस्ताव पर भारत का वोटिंग से बाहर रहना इस बात के संकेत हैं कि वह ग़ज़ा में इसराइली सैन्य कार्रवाई को आतंकवाद विरोधी ऑपरेशन के रूप में देख रहा है. भारत ऐसा मान रहा है आतंकवाद के ख़िलाफ़ लड़ाई में युद्धविराम नहीं हो सकता. भारत फ़लस्तीनियों के लिए मानवीय मदद का समर्थन कर रहा है लेकिन इसराइल की सैन्य कार्रवाई का भी विरोध नहीं कर रहा है.''
फ़्रांस के पूर्व प्रधानमंत्री दमिनिक द विपा ने भी अपने हालिया इंटरव्यू में ग़ज़ा में जारी इसराइली हमले को लेकर पश्चिम को निशाने पर लिया है.

अपने इंटरव्यू में फ़्रांस के पूर्व प्रधानमंत्री ने कहा, ''यूक्रेन में जो कुछ भी हो रहा है और ग़ज़ा में जो कुछ हो रहा है, उस पर पश्चिम का दोहरा मानदंड खुलकर सामने आ गया है. हाल के हफ़्तों में मैं मध्य-पूर्व, अफ़्रीका और लातिन अमेरिका गया तो महसूस किया कि पश्चिम के दोहरे मानदंड को लेकर काफ़ी नाराज़गी है. लोग खुलकर कह रहे हैं कि यूक्रेन में जो कुछ भी हो रहा है, उसे लेकर पश्चिम संवेदनशीलता और मानवीयता की बात कर रहा है लेकिन ग़ज़ा में जो इसराइल कर रहा है, उस पर पाखंड दिखा रहा है. ग्लोबल साउथ में पश्चिम के रुख़ को लेकर काफ़ी अविश्वास है.''

फ़्रांस के पूर्व प्रधानमंत्री ने कहा, ''जब रूस ने यूक्रेन पर हमला किया तो हमने उसके ख़िलाफ़ कड़े से कड़े प्रतिबंध लगा दिए. रूस ने संयुक्त राष्ट्र के प्रस्ताव का उल्लंघन किया तो हमने प्रतिबंध लगा दिए. लेकिन पिछले 70 सालों से इसराइल संयुक्त राष्ट्र के प्रस्तावों को नहीं मान रहा है और उसके ख़िलाफ़ को प्रतिबंध नहीं लगा. पश्चिम को ऐतिहासिक ड्रामे पर अपनी आँखें अब खोल लेनी चाहिए. इसराइल के पॉलिटिकल और डिप्लोमैटिक प्रोग्राम से टू-स्टेट समाधान यानी इसराइल के साथ एक स्वंतत्र देश फलस्तीन की बात हटा दी गई है.''

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