चिकित्सा उपचार में लापरवाही होने पर अगर डॉक्टरों के खिलाफ केस हो सकता है तो खराब सर्विस के लिए वकीलों पर क्यों नहीं :सुप्रीम कोर्ट

मेडिकल ट्रीटमेंट में लापरवाही होने पर अगर डॉक्टरों के खिलाफ मुकदमा हो सकता है तो खराब सर्विस के लिए वकीलों पर क्यों नहीं।' सुप्रीम कोर्ट ने ये सवाल तब उठाया जब उन्होंने इससे जुड़ी कई याचिकाओं पर सुनवाई शुरू की। क्या लीगल रिप्रेजेंटेशन से जुड़े मामले उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 1986 के तहत आते हैं? इससे जुड़ी याचिकाओं पर सर्वोच्च कोर्ट में सुनवाई हुई। इस दौरान अदालत ने कहा कि जब खराब सेवा को लेकर डॉक्टर को उपभोक्ता अदालतों में लाया जा सकता है तो वकीलों पर मुकदमा क्यों नहीं चलाया जा सकता।

क्या कन्ज्यूमर प्रोटेक्शन एक्ट के दायरे में आते हैं वकील?

जस्टिस बेला एम त्रिवेदी और जस्टिस पंकज मिथल की पीठ ने मामले पर सुनवाई की। उन्होंने कहा कि एक वकील को उस मामले के तथ्यों में अपने कौशल और ज्ञान का इस्तेमाल करना होगा, ठीक वैसे ही जैसे किसी मरीज के इलाज के समय एक डॉक्टर करता है। कोर्ट ने ये बातें उन याचिकाओं पर विचार के दौरान कही जिसमें 2007 के राष्ट्रीय उपभोक्ता आयोग की ओर से आए विचारों पर सवाल उठाया गया था। 2007 के अपने फैसले में, राष्ट्रीय उपभोक्ता आयोग ने कहा था कि वकील कन्ज्यूमर प्रोटेक्शन एक्ट के दायरे में आते हैं। सेवा में कमी के लिए क्लाइंट की ओर से उन्हें भी उपभोक्ता अदालत में घसीटा जा सकता है। इस फैसले में कहा गया था कि वकीलों की ओर से प्रदान की गई कानूनी सेवाएं 1986 अधिनियम की धारा 2(1)(o) के दायरे में आएंगी। ये धारा 'सर्विस' को परिभाषित करती है, जो उन्हें कानून के तहत उत्तरदायी बनाती है।


उपभोक्ता आयोग के 2007 में आए फैसले पर सुनवाई
हालांकि, उपभोक्ता आयोग के 2007 में आए फैसले पर अप्रैल 2009 में शीर्ष अदालत ने रोक लगा दी थी। अब कोर्ट ने कहा कि इसमें कोई विवाद नहीं है कि वकील सेवा प्रदान कर रहे हैं। वे फीस ले रहे हैं। यह व्यक्तिगत सर्विस का कॉन्ट्रेक्ट नहीं है। इसलिए, यह मानने का कोई कारण नहीं है कि वे उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 1986 के प्रावधानों के अंतर्गत नहीं आते हैं। अपीलकर्ताओं की ओर से दलीलें शुरू करते हुए, वरिष्ठ वकील नरेंद्र हुडा ने 2007 के फैसले के औचित्य पर आपत्ति जताई। उन्होंने तर्क दिया कि वकील, डॉक्टरों सहित किसी भी अन्य पेशेवर से पूरी तरह से अलग स्तर पर आते हैं।

पक्ष और विपक्ष दी गई क्या-क्या दलीलें
नरेंद्र हुडा ने कहा कि एक वकील का पहला कर्तव्य अदालत के प्रति है क्योंकि उसे कोर्ट में एक अधिकारी के रूप में कार्य करना होता है। एक वकील का अपने मुवक्किलों के साथ कोई वन टू वन संबंध नहीं होता। इसके अलावा, किसी मामले में सफलता केवल एक वकील के कौशल पर निर्भर नहीं करती, बल्कि यह कोर्ट पर निर्भर करेगी। इस पर असहमति जताते हुए पीठ ने जवाब दिया कि अगर कोई वकील अदालत में मौजूद नहीं रहता और उसके मुवक्किल के खिलाफ एक पक्षीय फैसला आता है। वकील अपने मुवक्किल को यह भी नहीं बताता कि केस क्यों खारिज किया गया। ऐसे मामले में जिम्मेदार कौन होगा? इस तरह की लापरवाही के लिए कोर्ट बिल्कुल भी सामने नहीं आएगी।

जानिए कोर्ट ने पूरे मामले में क्या कहा
हुडा ने तर्क दिया कि यह डॉक्टरों से अलग है। जब एक डॉक्टर ऑपरेशन थियेटर के अंदर किसी मरीज का ऑपरेशन करता है, तो कोई नहीं देख रहा होता है। लेकिन एक वकील अपना काम करता है, यह पूरी तरह से सार्वजनिक होता है। प्रत्येक नाखुश क्लाइंट उपभोक्ता अदालत के समक्ष मामला उठाएगा। हालांकि, पीठ ने इस पर टिप्पणी में कहा कि आप जो भी तर्क दे रहे हैं वह डॉक्टरों के लिए भी सच है। डॉक्टरों को उपभोक्ता अदालतों में मामलों का सामना करना पड़ता है। फिर आप किसी को भी तुच्छ या झूठा मामला दायर करने से नहीं रोक सकते। यह सभी बिजनेस के लिए सच है। कोर्ट ने हुड्डा से आगे ये भी कहा कि उन्हें यह बताना होगा कि सर्विस प्रदान करने में वकील डॉक्टरों से कैसे भिन्न हैं। अब न्याय मित्र के रूप में कोर्ट की सहायता करने वाले वरिष्ठ वकील वी गिरी भी शामिल होंगे।

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