भारतीय संविधान के साथ तिहरी विसंगति चल रही है। एक तो पहली ही पंक्ति में झूठा संदेश होना दूसरे आम जन को भ्रमित करना और तीसरे डॉ आंबेडकर के साथ अन्याय। यह अन्याय भी अनेक स्तरों पर है। डॉ आंबेडकर ने कहा था कि वह इसमें लिखी बहुतेरी बातों के विरुद्ध थे जिसे उन्होंने किसी लिपिक (‘हैक’) की तरह लिखा
आजकल नेताओं में संविधान को लेकर ‘तू तू-मैं मैं’ चल रही है। वे बढ़-चढ़कर संविधान भक्त और रक्षक बन रहे हैं। हालांकि उनकी बातों पर ध्यान देने से लगता है कि संविधान अपना-अपना राजनीतिक दबदबा बनाने के लिए एक शिगूफा भर है। संविधान की भावना या उससे अतिवादी रूप में जोड़ दी गई डॉ आंबेडकर की भावना की भी चिंता शायद ही किसी को है।
असल में बहुत कम लोगों ने मूल संविधान और संशोधनों के उपरांत संविधान की विसंगतियों पर ध्यान दिया है। न ही संविधान सभा में हुई चर्चा के साथ आज की चर्चाओं की तुलना करके देखा है। ऐसा करने से पता चलेगा कि संविधान पर अपने-अपने दावों में असल बातें खो गई हैं।
अधिकांश लोग इस प्रसंग में अपने स्वार्थ साधने या अपना मतवाद थोपने में लगे हैं। इससे विभिन्न दलों और समुदायों के बीच अकारण मनमुटाव बढ़ता है। इसमें डॉ आंबेडकर को भी नाहक घसीटा जाता है। पूरे प्रसंग में ऐतिहासिक वास्तविकता उलटी और विचित्र जान पड़ती है।
मूल संविधान ने भारत को नाम दिया था ‘लोकतांत्रिक’ गणराज्य। उसे 25 वर्ष बाद बदलकर ‘समाजवादी सेक्युलर लोकतांत्रिक’ गणराज्य कर दिया गया। इस तरह एक के बदले तीन उद्देश्य बना दिए गए। जबकि उस पंक्ति में तारीख पुरानी रहने दी गई कि ‘आज तारीख 26 नवंबर, 1949’ को इस संविधान को अंगीकृत एवं आत्मार्पित करते हैं।
मानो, जो वसीयत केवल ‘क’ को सारी संपत्ति देती थी, उसे वसीयतकर्ता के मरने के बाद ‘क, ख और ग’ को देने में बदलकर वसीयत की तारीख और वसीयतकर्ता का नाम वही रहने दिया जाए। ऐसे मामले को दुनिया का हर न्यायाधीश स्पष्ट रूप से फ्राड कहेगा।
इसके बावजूद आम लोग तो छोड़िए सुप्रीम कोर्ट के कई वकील भी इस तथ्य से अनजान मिलते हैं कि ‘सेक्युलर, सोशलिस्ट’ शब्द मूल संविधान में नहीं थे। कारण यही है कि उद्देशिका का चरित्र परिवर्तित करके भी उस पंक्ति की तारीख अपरिवर्तित रखी गई। किसी भी कागजात में ऐसा करना जालसाजी कहा जाएगा, मगर इस विसंगति पर मौन रखकर 50 वर्षों से जनता को ही छला जा रहा है।
भारतीय संविधान के साथ तिहरी विसंगति चल रही है। एक तो पहली ही पंक्ति में झूठा संदेश होना, दूसरे आम जन को भ्रमित करना और तीसरे डॉ आंबेडकर के साथ अन्याय। यह अन्याय भी अनेक स्तरों पर है। डॉ आंबेडकर ने कहा था कि वह इसमें लिखी बहुतेरी बातों के विरुद्ध थे, जिसे उन्होंने किसी लिपिक (‘हैक’) की तरह लिखा। दूसरे, संविधान सभा की बहस में भी ‘सेक्युलर’ और ‘सोशलिस्ट’ शब्द जोड़ने का प्रस्ताव आया था, जिस पर विचार करके उसे खारिज किया गया था।
यानी जो दो उद्देश्य 25 साल बाद जबरन जोड़े गए, उन्हें आंबेडकर समेत सभी बड़े नेताओं ने नामंजूर किया था। इस प्रकार, बाद में उन्हीं उद्देश्यों को अपनाना संविधान निर्माताओं के नाम से प्रचारित करना दोहरा छल और उनकी स्मृति का अपमान है। यह भी उल्लेखनीय है कि संविधान बनने और लागू होने के तीन वर्षों में ही डॉ आंबेडकर ने उसे समाप्त करने योग्य कहा था। आंबेडकर ने संसद में 2 सितंबर, 1953 और फिर 19 मार्च, 1955 को फिर से अपनी ये बातें दोहराईं।
इन पहलुओं को देखते हुए उस धोखे का स्तर समझना चाहिए, जो संविधान, देश की जनता और आंबेडकर की स्मृति के साथ जाने-अनजाने हो रहा है। संविधान का मूल चरित्र बदल दिया गया, कई पीढ़ियों को भ्रमित रखा गया और आंबेडकर के नाम का दुरुपयोग किया गया। चूंकि सभी दल इसमें शामिल हैं, इसलिए इन विसंगतियों पर चर्चा तक नहीं होती। उस दूषित वाक्य को सही करना तो दूर रहा, जो संविधान का पहला ही वाक्य होने के कारण घोर लज्जाजनक भी है।
प्रश्न उठेगा कि आखिर ऐसा कैसे चल रहा है? जब अनेक वकील भी उक्त तथ्यों से अनभिज्ञ मिलें, तब सामान्य नेताओं को ऐसी तकनीकी एवं महीन जानकारी न होने का अनुमान सहज लगाया जा सकता है। इस आत्मप्रवंचना का उत्तर उस विशिष्ट शब्द में है, जो गत पांच दशकों से भारतीय राजनीति का ‘ध्रुवतारा’ बना हुआ है। सेक्युलर नाम के इस शब्द को एक उद्देश्य के रूप में संविधान में 1975 में थोपा गया। सेक्युलर और सोशलिस्ट में से केवल सेक्युलर की माला जपी जाती है, जबकि दूसरे उद्देश्य सोशलिस्ट का कोई खास नामलेवा नहीं।
पहली पंक्ति में लिखे अन्य मूल निर्देशों को भी कोई याद नहीं करता। जैसे, उस पहली पंक्ति में ही सभी नागरिकों को ‘प्रतिष्ठा और अवसर की समता’ या ‘व्यक्ति की गरिमा’ सुनिश्चित करना भी लिखा है, जिसे कोई याद नहीं करता। तब क्या कारण है कि मूल उद्देशिका के सात-आठ गंभीर निर्देशों को दरकिनार कर बहुत बाद में जोड़े गए केवल एक शब्द सेक्युलर को ही सबने पकड़ा हुआ है? हमारे नेता, मीडिया और बुद्धिजीवी जितना इसे घिसते हैं, उसका शतांश भी उसी उद्देशिका में दिए सात-आठ मूल निर्देशों के लिए नहीं करते।
क्षेपक की भांति जोड़े गए और आंबेडकर के नाम से झूठे प्रचारित किए गए ‘सेक्युलर’ वाद की आड़ में देश की मूल धर्म-संस्कृति को पीछे धकेल कर एक विजातीय मतवादी दबदबा बढ़ाया जा रहा है। एक समुदाय विशेष के वोट के लोभ में सभी दल कमोबेश इस आत्मघाती कदाचार में शामिल हैं। केवल इसीलिए संसद सत्र, मीडिया और बौद्धिकों में सर्वप्रमुख चिंता और नेताओं की घोषणाओं में मुख्यतः सेक्युलरवाद की बात रहती है, क्योंकि यह एक समुदाय विशेष की वर्चस्ववादी राजनीति के निर्देश का कोडवर्ड है।
यह वर्चस्ववाद आंबेडकर के समय में भी था, जिसे उन्होंने सटीक नाम भी दिया था: ‘ग्रावामिन राजनीति।’ इसका अर्थ भी उन्होंने बताया था कि यह वंचित होने का ढोंग करके, शिकायतें कर-करके अपना दबदबा बनाती है। वही राजनीति आज सेक्युलरिज्म की आड़ में चौतरफा हावी है। अधिकांश नेता और बुद्धिजीवी उससे ग्रस्त हैं। इसलिए सेक्युलर के सिवा किसी संवैधानिक या नैतिक मूल्य की उन्हें चिंता करते नहीं देखा जाता।
इस प्रकार, न केवल संविधान, देश के जनगण और डॉ आंबेडकर के नाम के साथ अन्याय हो रहा है, बल्कि इस अन्याय को खत्म करने की आशा भी नहीं दिखती। सभी दलों के बीच संविधान मानो फुटबाल की तरह खेलने और एक-दूसरे को नीचा दिखाने के बहाने जैसी कोई चीज हो गई है, लेकिन उसकी मूल भावना और संविधान निर्माताओं की अपेक्षाएं दोनों उपेक्षित हैं।News source
1 Comments
Jai bhim
ReplyDelete